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Har Vyakti kabhi na kabhi

हर व्यक्ति कभी ना कभी संतजनों से एक बात जरूर पूछता है कि भगवान ने यह सृष्टि क्यों बनाई ?

साधारणत सभी संतजन इस प्रश्न का उत्तर देने से कतराते रहते हैं! क्योंकि यह प्रश्न है ही इतना जटिल जिसके उत्तर पर विश्वास दिलाना बहुत ही मुश्किल है! क्योंकि जिस चीज का स्वाद उसने चखा ही नहीं उसका स्वाद समझा पाना या समझ पाना दोनों ही असंभव है!

 

कारण:- शुरुआती देखने पर लगता है कि सृष्टि की उत्पत्ति का कारण कोई ईश्वर, भगवान या कोई अन्य शक्ति है जिसने सृष्टि को बनाया है ! दूसरे दृष्टिकोण से लगता है कि प्रकृति ने ही चेतना के धागों से इस सुंदर सृष्टि का निर्माण किया है लेकिन अगर आप पूर्ण एकाग्र होकर देखेंगे या सोचेंगे तो पता चलेगा कि इस सृष्टि को किसी ने भी नहीं बनाया है बल्कि सृष्टि का अपने आप ही सृजन हुआ है व जिस चीज का अपने आप सृजन होता है उसका कोई उद्देश्य नहीं होता, सिर्फ उसका विस्तार होता है ! जो सृष्टि विस्तृत हुई है वह कभी ना कभी पुनः अपने स्वरूप में जरूर जाएगी, यही सत्य है!
यह सृष्टि जो अब हम देख रहे हैं वह इसके पहले से ही किसी अन्य स्वरूप में विराजमान है अर्थात जब यह संसार प्रकट नहीं था तब भी यह सृष्टि चेतन तत्व के रूप में विराजमान थी ! एक एसा तत्व जो परम पवित्र है, जिसका ना आदि है ना अंत है ! इस परम तत्व की शक्ति से ही इस पृथ्वी पर समस्त प्राणियों का सृजन होता है ! इसी परम तत्व की शक्ति से ही सभी बीज अंकुरित होते हैं और इसी चेतन तत्व की शक्ति से ही सभी वनस्पतियां पुष्ट होती है! इसी चेतन तत्व की शक्ति से ही सभी प्राणी सांस लेते हैं व भोजन पचाते हैं! इसी चेतन तत्व की मौजूदगी के कारण ही मस्तिष्क में ज्ञान, याददाश्त व विवेक आदि जागृत होते हैं ! सभी प्राणियों समेत पूरी सृष्टि का सृजन व विस्तार का आधार यही चेतन तत्व है ! सृष्टि की हर विस्तृत चीज के साथ इस चेतन तत्व की शक्तियों का स्वभाव व स्वरूप भी परिवर्तित हो रहा है! जैसे एक मनुष्य से दूसरा मनुष्य पैदा होता है तो पहले पुरुष में से ही चेतना शक्ति बच्चों में आती! इसी तरह एक बीज से पौधे में आती है अर्थात जितना सृष्टि का विस्तार हो रहा है उतनी ही इस तत्व की शक्तियां परिवर्तित हो रही है !

इसकी परिवर्तित शक्तियां पुनः अपने स्त्रोत में जाने के लिए हमेशा प्रयासरत रहती है परंतु इसका दूसरा रूप अर्थात सभी प्राणी अनजाने में विस्तार की ओर ही प्रयासरत रहते हैं व हमेशा दुखी व अशांत रहते हैं! प्राणी भीतर की चेष्टा को समझ नहीं पा रहा है व बाहरी भोगों में ही पूरा जीवन व कई जीवन खपा देता है व हर बार वही संसार, वही शरीर बंधन,फिर वही माया से भरा जीवन और फिर वही दुखों का एक अंतहीन सिलसिला! भीतर की चेष्टा को समझे बगैर इसका कोई भी उपाय नहीं है, यही जीवन की धारा है! इसे स्वीकारना ही होगा!

 

उपाय :- मनुष्य को चाहिए की सबसे पहले तो उसने भौतिक जीवन मे जो भी मन को कमजोर करने वाले कार्य शुरू कर रखे हैं उन सब से ध्यान हटाकर मन को पुनः अपने स्वरूप में जाने के लिए संकल्पित करें! क्योंकि जब तक आप मन को सही दिशा नहीं दोगे तब तक यह आपको ऐसे ही भटकाता रहेगा! लक्ष्य व दिशा दोनों निर्धारित होने पर मन को पूर्ण निर्मल, स्थिर व शांत अवस्था में लाने का प्रयास दृढ़ता के साथ शुरू करना चाहिए ! मन को इस स्थिति में लाने के लिए सबसे पहला काम, अब तक जो भी ज्ञान मनुष्य ने इकट्ठा कर रखा है वह सिर्फ कचरा है व कचरा हमेशा गंदगी में ही परिवर्तित होता है इसलिए इस पूरे ज्ञान को भूलकर पूर्ण विवेक जागृत करने का प्रयास करना चाहिए ! क्योंकि सत्य को जानने के लिए विवेक रूपी आंख की जरूरत होती है, ज्ञान की नहीं! पूरा संसार अपने आप को ज्ञानी समझ रहा है परंतु बिना विवेक की आंख के अंधा होकर घूम रहा है! क्योंकि मनुष्य को स्वयं के द्वारा ही स्वयं का उद्धार करना होता है! जब विवेक जागृत होता है व जब मन निर्मल व शांत हो जाता है तो वह जान जाता है कि जिस स्रोत में जाने के लिए प्रयास कर रहा है वह स्त्रोत तो वह खुद ही है !

 

उदहारणत: हर नदी स्वाभाविक ही समुद्र की ओर दौड़ती रहती है क्योंकि उसका स्रोत समुद्र ही है! वह समुद्र के प्रति इसलिए आकर्षित हैं क्योंकि वह उसे खुद से अलग समझती है! अगर नदी यह जान जाए कि ना वह नदी है और ना ही वह समुद्र है दोनों सिर्फ पानी ही है तो उसका आकर्षण खत्म हो जाएगा और वह शांत हो जाएगी!
इसी तरह हर प्राणी अपने आप को दूसरे से भिन्न समझता है और एक दूसरे के प्रति आकर्षण अनुभव कर रहे हैं व भोग में लिपटे रहते हैं ! सभी अपने आप को एक दूसरे से अलग समझ रहे है इसीलिए प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या द्वेष, घृणा और अहंकार आदि दुष्परिवर्तियों से घिरे रहते है व एक दूसरे से आगे निकलने के प्रयास में अशांत व दुखी रहते है परंतु जब वह पुर्ण विवेक के साथ भीतर की यात्रा शुरू करता है तो एक दिन वह जान जाता है कि वह शरीर नहीं एक चेतन तत्व है व हम सभी अलग-अलग ना होकर एक ही चेतन तत्व हैं व अपने स्वभाव व स्वरूप ना जान पाने से दुखी एवं अशांत है व इसी कारण से सभी एक दूसरे के प्रति अलग-अलग बर्ताव कर रहे हैं तो वह इस यात्रा को पूर्ण करने के लिए प्रयास शुरू करता है जो परम सत्य, अपरिवर्तनीय,और शास्वत है! यही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है जो ज्ञान के द्वारा माया के आवरण से मुक्त होकर प्रकट होता है और एक दिन अपने आनंदित स्वरूप का अनुभव करता है और अपनी आगे की यात्रा बंद कर देता है! यही आत्मसाक्षात्कार, ईश्वर प्राप्ति व मोक्ष है

धन्यवाद
युगपुरुष चेतनानंद जी